नमस्कार दोस्तों असा करता हु आपलोग ठीक होंगे तो आज के आर्टिकल में हमलोग जानेगे की ध्यान क्या है, ध्यान कैसे करें (Dhyan kya hai kaise karen), ध्यान करने की सबसेअच्छी विधि क्या है? ध्यान कितने समय तक करना चाहिए? क्या आँखें बंद करके ईश्वर का स्मरण करना ही ध्यान है? क्या किसी अकेले शांत में बैठकर किसी वस्तु, व्यक्ति या बिंदु पर मन को एकाग्र करना ध्यान कहलाता है ? आदि अनेक प्रश्न साधकों व जिज्ञासुओं के मन में उठते हैं।
वास्तव में ध्यान (Dhyan kya hai kaise karen) ईश्वरप्राप्ति का, ईश्वर की अनुभूति का, परमानंद की प्राप्ति का एक श्रेष्ठ साधन है। ध्यान की कई विधियाँ हैं और उन सबका उद्देश्य एक ही है-ईश्वर की अनुभूति व परमानंद की प्राप्ति। इसे ऐसे महसूस करें कि जैसे पूर्णिमा का चाँद अपने संपूर्ण स्वरूप में चमक रहा है। वह समुद्र की सतह पर प्रतिबिंबित हो रहा है, पर समुद्र में उठ रही ऊँची-ऊँची लहरों पर चंद्रमा का प्रतिबिंब टिक नहीं पा रहा, स्थिर नहीं हो पा रहा।
फलस्वरूप हम उसके संपूर्ण स्वरूप का, सौंदर्य का दर्शन, दिग्दर्शन नहीं कर पा रहे। पर अचानक जैसे ही समुद्र में उठने वाली ऊंची-ऊंची लहरें कुछ पल के लिए शांत होती हैं, वैसे ही चंद्रमा अपने पूर्ण, संपूर्ण सौंदर्य, स्वरूप में दिखने लगा और उसके इस अप्रतिम, अनुपम सौंदर्य को देखकर कोई भी हो; आनंदित, आह्लादित, प्रफुल्लित हुए बिना नहीं रह सकेगा।
इसी तरह से यह भी सत्य है कि हमारी आत्मा में भी परमपिता परमात्मा का वास है, पर प्रश्न उठता है कि अपनी आत्मा में ही विराज रहे परमात्मा की हमें अनुभूति क्यों नहीं हो पाती? ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे मन में, हमारे चित्त में भी ऊँची-ऊंची लहरें उठती हैं। हमारे मन में इच्छाओं की, विचारों की, भावनाओं की, वासनाओं की, कामनाओं की ऊँची-ऊंची लहरें उठ रही हैं।
उन लहरों के कारण ही हमें अपने ही भीतर विराजमान परमात्मा के होने की अनुभूति नहीं हो रही। अतः विभिन्न पूजा-पद्धतियों व ध्यान की विधियों का एक ही उद्देश्य है- मन में उठ रही उन सभी लहरों को शांत कर लेना, समाप्त कर लेना।
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अब तक जिन साधकों को, तपस्वियों को, योगियों को,ऋषियों को ईश्वर की अनुभूति हो सकी, परम आनंद की अनुभूति हो सकी, वह इसलिए हो सकी; क्योंकि वे मन के पार चले गए। वे मन की लहरों को पार कर सके। वे चित्त में उठने वाली लहरों को शांत कर सके, समाप्त कर सके । ध्यान मन की लहरों को शांत करना है, चित्त की लहरों को शांत करना है, मन को इच्छाओं से मुक्त करना है, विचारों से मुक्त करना है, वासनाओं से मुक्त करना है, संस्कारों से मुक्त करना है। मन को ख्यालों से खाली करना है।
मन के इच्छाओं, वासनाओं, विचारों, भावों, संस्कारों से मुक्त होते ही अर्थात मन के समाप्त होते ही उसी पल हमारे अंतस् में, हमारी आत्मा में समाधि की महान घटना घट जाती है। हमें हमारी आत्मा में ही प्रकाश रूप परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं। हमारे अंदर आनंद का अजस्र स्रोत फूट पड़ता है। हमारा अंतस् ईश्वरीय आलोक से आलोकित हो उठता है।
यह ऐसा आनंद है जो अवर्णनीय है, अलौकिक है,अद्वितीय है, अनुपम है। यह परम आनंद हमारी आत्मा से ही प्रस्फुटित होता है; क्योंकि हम स्वयं भी सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा से बने हैं। हम स्वयं भी उन्हीं परमात्मा के अंश हैं, जो आनंदस्वरूप हैं। यह हमारी अपनी ही चेतना है, जो ईश्वरीय चेतना से जुड़कर स्वयं भी सत् चित्-आनंदस्वरूप, परमात्मस्वरूप हो जाती है।
ध्यान क्या है, ध्यान कैसे करें | Dhyan kya hai kaise karen | ध्यान की शुरुआत कैसे करें
अब प्रश्न यह उठता है कि ध्यान (Dhyan kya hai kaise karen) की शुरुआत कहाँ से और कैसे करें? इसकी शुरुआत हम निस्संदेह एकाग्रता से कर सकते हैं। हम जो भी कार्य करें, उसे एकाग्रचित्त होकर करें। यदि हम भोजन पर बैठे हैं तो उस समय हमारी पूरी एकाग्रता भोजन में ही होनी चाहिए। यदि हम खेल रहे हैं तो हमारी पूरी एकाग्रता खेल में ही होनी चाहिए। यदि हम पढ़ रहे हैं तो हमारी पूरी एकाग्रता पढ़ने में ही होनी चाहिए। यदि हम सो रहे हैं तो हमारी पूरी एकाग्रता सोने में ही होनी चाहिए।
इससे हमारा मन अधिक एकाग्र और संवेदनशील होता जाएगा और ध्यान के अनुकूल होता जाएगा। हम भोजन की टेबल पर बैठे भोजन कर रहे होते हैं और राजनीति तथा अन्य विषयों की चर्चाएँ भी चल रही होती हैं। हम स्नान कर रहे होते हैं और अन्य विषयों पर विचार भी कर रहे होते हैं। यह ठीक नहीं; क्योंकि इससे मन की एकाग्रता क्षीण पड़ती है। हम जिस काम को करें उसमें पूर्णतः एकाग्र हो जाएँ।
भोजन करते समय, खेलते समय, सोते समय सिर्फ उसी एक विषय में सोचें। यदि हम सुबह धूप में बैठे हैं तो हम सूर्य की किरणों को यों महसूस करें मानो इन किरणों के माध्यम से सूरज ने अपने हाथ हम तक फैला दिए हैं, मानो सूरज हमें स्पर्श कर रहा हो। हमारे चेहरे पर पड़ती सूरज की गुनगुनाती धूप हमारे हृदय को आंदोलित करने लगे। हम चलते हुए हवा के स्पर्श को महसूस करें मानो हवा के झोंकों ने हमारे संपूर्ण अस्तित्व को छू लिया हो।
यदि हम बरफ को स्पर्श करें, तो ऐसा महसूस करें मानों हमारा संपूर्ण अस्तित्व, हमारा संपूर्ण प्राण ही उसे स्पर्श कर रहा है। यदि हम सरोवर या नदी में उतरकर स्नान करें तो ऐसा महसूस करें कि ब्रह्म ने ही जल का रूप धारण कर लिया है और उसमें डूबकर व भीगकर हमारे रोम-रोम पुलकित हो रहे हैं। यदि कभी हम वृक्ष के किनारे बैठे हैं या वृक्ष से टिककर बैठे हैं तो पूरे शरीर में वृक्ष के स्पर्श को महसूस करें, उसके साथ एकात्म हो जाएँ। इससे हमारी इंद्रियाँ धीरे-धीरे संवदेनशील होती जाएँगी और हम बड़ी आसानी से अपने भीतर प्रवेश कर सकेंगे; अपने हृदय में प्रवेश कर पाएँगे और तब हम एकाग्र हो सकेंगे।
इसके अतिरिक्त हम सुखपूर्वक किसी भी आसन में बैठकर किसी भी रुचिकर विषय, वस्तु, व्यक्ति, बिंदु आदि पर ध्यान कर सकते हैं। ध्यान में बैठते ही हमारे मन में विचारों का बवंडर उठ खड़ा होता है। फलस्वरूप ध्येय वस्तु पर हम एकाग्र ही नहीं हो पाते। तब हम क्या करें?
ऐसी स्थिति में हमें उन विचारों को रोकना नहीं है, दबाना नहीं है, वरन उन विचारों को द्रष्टा भाव से, साक्षी भाव से देखते भर रहना है। उन विचारों को, इच्छाओं को, साक्षी भाव से देखने का चमत्कार ही ध्यान है। ऐसा महसूस करें कि वे सारे विचार हमारे अंदर नहीं, बल्कि बाहर-बाहर से होकर गुजर रहे हैं। वे आकाश में बादलों की तरह इधर-से-उधर आ-जा रहे हैं। हम महसूस करें कि हम तो इन विचारों के साक्षी भर हैं, द्रष्टा भर हैं। हमारा इन विचारों से, इच्छाओं से, संस्कारों से, स्मृतियों से कोई लेना-देना नहीं।
हम इनसे प्रभावित ही क्यों हों? फिर ये सारे विचार हमारे मन के बाहर-बाहर से, ऊपर-ऊपर से वैसे ही गुजरते जाएँगे जैसे आकाश मार्ग से चिड़ियों का झुंड गुजर जाता है। इस प्रकार हम धीरे-धीरे निर्विचार होते जाएँगे और अपने अंतर्मन की गहराई में प्रवेश करते जाएँगे।
अपने हृदय की गहराई में उतरते ही हम चाहे जिस किसी भी विषय, वस्तु, व्यक्ति, बिंदु आदि के ध्यान में डूब सकते हैं। हम युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव द्वारा निर्देशित सविता ध्यान, अमृत वर्षा ध्यान, पंचकोश का ध्यान, तीन शरीरों का ध्यान आदि किसी भी ध्यान में डूब सकते हैं। ध्यान की गहराई में उतर जाने पर हमारा मन वैसे ही मिट जाता है, जैसे समुद्र में उतरते ही नमक समुद्र में ही विलीन हो जाता है। हमको अनुभव होगा कि हम मन की आँखों से ध्यान के विषय, वस्तु, बिंदु आदि को देख रहे थे, पर अब वह मन भी नहीं रहा-वह भी मिट गया। वैसे ही जैसे जिस लकड़ी से, जिस लकड़ी की अग्नि से चिता में आग लगाई जाती है, चिता के जलते ही उस लकड़ी को भी उसी चिता में डाल दिया जाता है। वह लकड़ी भी वहीं भस्मीभूत हो जाती है।
इस प्रकार ध्येय वस्तु का ध्यान करते-करते मन ध्येय वस्तु में ही विलीन हो गया। यह अमन की अवस्था ही ध्यान है। इस अमन की अवस्था में ही साधक अपने अंतरतम में उतरता है, अपने हृदय में प्रवेश करता है और वहाँ प्रतिष्ठित, प्रकाशित, प्रज्वलित आत्मा की अखंड ज्योति का दर्शन करता है।
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तब साधक अपनी आत्मा में ही परमात्मा को विराजमान देखता है। उसकी अनुभूति करता है और पल-पल आनंदित होता है। अपने हृदय में बारंबार परमात्मा का स्मरण करते-करते उसकी सारी इच्छाएँ, वासनाएँ मिट जाती हैं। वहाँ परमात्मा का परम प्रकाश आत्मा में ही उतर आता है। यह आनंद अवर्णनीय है, अकल्पनीय है। इसकी अनुभूति कोई ध्यानी ही कर सकता है। कोई सच्चा साधक ही कर सकता है। कोई बुद्धपुरुष ही कर सकता है।
इस प्रकार निरंतर एवं बारंबार ध्यान का अभ्यास करते-करते ध्याता का, साधक का, हर पल ही ध्यानमय हो जाता है, आनंदमय हो जाता है। वह अपने कर्त्तव्य-पथ पर चलता रहता है, चाहे वह व्यापारी हो, चिकित्सक हो, किसान हो, अभियंता हो, विद्यार्थी हो, अध्यापक हो-उसे अपना कार्य करते हुए यह अनुभव होता रहता है कि यह काम मैं नहीं कर रहा हूँ; मैं शरीर से पृथक हूँ। मैं तो द्रष्टा मात्र हूँ, साक्षी मात्र हूँ।
उसे हर पल अपनी आत्मा में परमात्मा की अनुभूति होने लगती है। उसे हर पल एक अपूर्व आनंद का अनुभव होने लगता है। वह स्वयं को परमात्मा का यंत्र मात्र मानकर, अपने कर्त्तव्य कर्म करता जाता है। तब वह कर्त्तव्य कर्मों में लिप्त तो रहता है, पर आसक्त नहीं होता। तब उसके कर्म निष्काम कर्मों में बदल जाते हैं।
ऐसे में साधक सुखासन या पद्मासन में बैठकर ही नहीं, बल्कि खेलते हुए; सोते हुए; हँसते हुए; बोलते हुए; चलते हुए; दौड़ते हुए भी ध्यान में ही होता है। वह बंदआँखों से ही नहीं, बल्कि खुली आँखों से भी ध्यान में ही :होता है। अब उसे ध्यान करने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता; बल्कि ध्यानावस्था से बाहर निकलने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है।
निष्कर्ष: ध्यान क्या है और ध्यान कैसे करे
सचमुच यह अवस्था ही वास्तविक ध्यान की अवस्था है। उसे ऐसा लगता है मानो भगवान हर पल उसके साथ हैं। वह चलता है तो भगवान भी उसके साथ चलते हैं। वह खाता है तो भगवान भी उसके साथ खाते हैं। वह हँसता है तो मानो भगवान भी उसके साथ हँसते हैं। वह कोई कार्य करता है तो मानो भगवान भी उसके साथ होते हैं। वास्तव में यही है ध्यान की वास्तविक स्थिति, जिसे हमें भी प्राप्त करना चाहिए और इसके लिए सतत अभ्यास की आवश्यकता है।
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